हिंदी को लोकप्रिय बनाने में बाबू देवकीनंदन खत्री के योगदान को ,भूलाया नहीं जा सकता

 हिन्दी दिवस


आज हिंदी दिवस है । आज मैं दैवकीनंदन खत्री को याद करना चाहूंगा । 

किसी भी भाषा की लोकप्रियता उसके साहित्यकारों पर निर्भर करती है । उर्दू अपनी ग़ज़लों की दम पर सारे जहाँ में धूम मचाये हुये है तो हिंदी भी रामायण, महाभारत जैसे टीवी सीरियल और बॉलीवुड की फिल्मों के सहारे छा गई है ।

किंतु एक समय ऐसा भी था जब अदालतों में केवल फ़ारसी भाषा का प्रयोग होता था । तुर्कों, पठानों और मुग़लों के राज्य में फ़ारसी को राजकाज की भाषा का दर्जा प्राप्त था । हिंदी केवल भक्तिकालीन कवियों की लोकप्रियता के कारण ही जीवित थी । सूर कबीर तुलसी और मीरा ने हिंदी पट्टी में इसको जीवित रखा ।

१८३७ में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा फ़ारसी के स्थान पर उर्दू को अदालती कामकाज के लिये स्वीकार कर लिया गया । उर्दू उस समय परिपक्व हो चुकी थी । मीर तकी मीर का युग था वह जिन्हें आज भी निर्विवाद रूप से उर्दू का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है ।

बाबू देवकीनंदन खत्री का जन्म मुजफ्फ़रपुर बिहार में हुआ था और जब १८८८ में उनका पहला उपन्यास चंद्रकांता प्रकाशित हुआ तो केवल उस उपन्यास को पढ़ने के लिये लोगों में हिंदी सीखने की होड़ लग गई। भाषा इतनी सरल कि कक्षा ५ का विद्यार्थी भी पढ़ सकता था। रोचकता ऐसी कि खाते पीते उठते बैठते भी किताब हाथ से नहीं छूटती ! इस तिलस्मी पुस्तक जो पकड़ता था वह पढ़ कर ही छोड़ता था। पुस्तक की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए उन्होंने इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए चंद्काँता संतति और भूतनाथ लिखीं जो और भी अधिक लोकप्रिय हुईं । हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी थी।

हिंदी की व्यापक लोकप्रियता के दृष्टिगत अंग्रेज़ सरकार ने सन १९०० में उर्दू के साथ साथ हिंदी को भी अदालतों में मान्यता प्रदान कर दी जिसका व्यापक विरोध हुआ किन्तु अब तक हिंदी बहुत आगे निकल आयी थी । खड़ी बोली का विकास शुरू हो चुका था ।


हिंदी दिवस पर इस तिलस्मी कथाकार को मेरा नमन !


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