होली का आध्यात्मिक
महत्व (पवन पंत)
सवा महीने बाद आऐगी होली
होली के आगमन का संदेश ले कर आती हैं बसंती पंचमी
होली पर्व आने वाला है आइए जाने हम होली मनाते तो है लेकिन हमारे जितने पर्व है उनका हमारी आध्यात्मिक संस्कृति से सम्बंध रहा है तो आइए जाने वैदिक सोमयज्ञ होली का आध्यात्मिक रहस्य......होली
का पर्व आते ही सर्वत्र उल्लास छा जाता है। हास-परिहास, व्यंग्य-विनोद, मौज-मस्ती और मिलने जुलने का प्रतीक लोकप्रिय पर्व होली वास्तव में एक वैदिक यज्ञ है, जिसका मूल स्वरूप आज विस्मृत हो गया है। आनन्दोल्लास का पर्व होली प्रेम, सम्मिलन, मित्रता एवं एकता का पर्व है। होलिकोत्सव में होलिका दहन के माध्यम से वैरभाव का दहन करके प्रेमभाव का प्रसार किया जाता है। होली के आयोजन के समय समाज में प्रचलित हँसी-ठिठोली, गायन-वादन, चाँचर (हुड़दंग) और अबीर इत्यादि के उद्भव और विकास को समझने के लिये हमें उस वैदिक सोमयज्ञ के स्वरूप को समझना पड़ेगा, जिसका अनुष्ठान इस महापर्व के मूल में निहित है।
जो सिंदूरारूण विग्रहा देवी परम तृप्त हैं, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक सर्वेश्वर का जिन्हें संनिधान प्राप्त है, जो अनन्तब्रह्माण्डजननी ऐश्वर्य-माधुर्य की अधिष्ठात्री महालक्ष्मी भगवती का भी सर्वोत्तम सारसर्वस्व हैं, वे ही श्रीराधारानी हैं। सर्वेश्वर भी जिनके पादारविन्द-रज की आराधना करते हैं, उनसे बढ़कर किसकी तृप्ति हो सकती है; उनका तर्पण होने पर सारे संसार का तर्पण हो जाता है।
वैदिक यज्ञों में सोमयज्ञ सर्वोपरि है। वैदिक काल में प्रचुरता से उपलब्ध सोमलता का रस निचोड़कर उससे जो यज्ञ सम्पन्न किये जाते थे, वे सोमयज्ञ कहे गये हैं। यह सोमलता कालान्तर में लुप्त हो गयी। हिन्दू धर्म ग्रंथों में इस सोमलता के अनेक विकल्प दिये गये हैं, जिनमे पूतीक और अर्जुन वृक्ष ,प्रमुख हैं। औषधि के रूप में अर्जुन वृक्ष को हृदय के लिए अत्यंत लाभ कारी माना गया है, सोमरस इतना शक्तिवर्धक और उल्लासकारी होता था कि उसका पान कर ऋषियों को अमरता जैसी अनुभूति होती थी।
इस दिन यज्ञ अनुष्ठान के साथ कुछ ऐसे मनोविनोद पूर्ण कृत्य किये जाते थे जिनका प्रयोजन हर्ष और उल्लास मय वातावरण उपस्थित करना होता था। इन सोमयागों के तीन प्रमुख भेद थे-एकाह, अहीन और सत्रयाग। यह वर्गीकरण अनुष्ठान दिवसों की संख्या के आधार पर है। सत्रयाग का अनुष्ठान पूरे वर्षभर चलता था। उनमें प्रमुखरूप से ऋत्विग्गण ही भाग लेते थे और यज्ञ का फल ही दक्षिणा के रूप में मान्य था। गवामयन भी इसी प्रकार का एक सत्रयाग है, जिसका अनुष्ठान ३६० दिनों में सम्पन्न होता है। इसका उपान्त्य(अन्तिम दिन से पूर्व का) दिन 'महाव्रत' कहलाता है। ‘महाव्रत’ में प्राप्य ‘महा’ शब्द वास्तव में प्रजापति का द्योतक है, जो वैदिक परम्परा में संवत्सर के अधिष्ठाता माने जाते हैं और उन्हीं पर सम्पूर्ण वर्ष की सुदृढ़-समृद्धि निर्भर है। ‘महाव्रत’ के अनुष्ठान का प्रयोजन वस्तुत: इन प्रजापति को प्रसन्न करना है-
‘प्रजापतिर्वाव महाँस्तस्यैतद् व्रतमन्नमेव [यन्महाव्रतम्]’
यज्ञवेदी के समीप एक उदुम्बर वृक्ष(गूलर) की टहनी गाड़ी जाती थी, क्योंकि गूलर का फल माधुर्य गुण की दृष्टि से सर्वोपरि माना जाता है। 'हरिश्चन्द्रोपाख्यान' में कहा गया है कि जो निरन्तर चलता रहता है, कर्म में निरत रहता है, उसे गूलर के स्वादिष्ट फल खाने के लिये मिलते हैं-‘चरन् वै मधु विन्देत चरन्स्वादुमुदुम्बरम्'(ऐतरेय ब्राह्मण)। गूलर का फल इतना मीठा होता है कि पकते ही इसमें कीडे पड़ने लगते हैं। उदुम्बरवृक्ष की यह टहनी सामगान की मधुमयता की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति करती थी। इसके नीचे बैठे हुए वेदपाठी अपनी-अपनी शाखा के मंत्रो का पाठ करते थे। सामवेद के गायकों की चार श्रेणियां थीं- उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता और सुब्रह्मण्य। पहले ये समवेत रूप से अपने-अपने भाग को गाते थे, फिर सभी मिलकर एक साथ समवेत रूप से गान करते थे। होली में लकड़ियों को चुनने से लगभग दो सप्ताह पूर्व गाड़ी जाने वाली एरण्ड वृक्ष की टहनी इसी औदुम्बरी(उदुम्बर की टहनी) का प्रतीक है। धीरे-धीरे जब उदुम्बरवृक्ष का मिलना कठिन हो गया तो अन्य वृक्षों की टहनियाँ औदुम्बरी के रूपमें स्थापित की जाने लगीं। एरण्ड एक ऐसा वृक्ष है, जो सर्वत्र सुलभ माना गया है। संस्कृत में एक कहावत है, जिसके अनुसार जहाँ कोई भी वृक्ष सुलभ न हो, वहाँ एरण्ड को ही वृक्ष मान लेना चाहिये-.
‘निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते।’ उद्गाता तो उदुम्बर काष्ठ से बनी आसन्दी पर ही बैठकर सामगान करता है। सामगाताओं की यह मण्डली महावेदी के विभिन्न स्थानों पर घूम-घूमकर पृथक्-पृथक् सामों का गान करती थी। सामगान के अतिरिक्त महाव्रत-अनुष्ठान के दिन यज्ञवेदी के चारों ओर, सभी कोणों मेँ दुन्दुभि अर्थात् नगाड़े भी बजाये जाते थे-
‘सर्वासु स्रक्तिषु दुन्दुभयो व्वदन्ति' (ताण्ड्य ब्राह्मण ५।५।१८)। इसके साथ ही जल से भरे घड़े लिये हुई स्त्रियाँ ‘इदम्मधु इदम्मधु’ (यह मधु है, यह मधु है), कहती हुई यज्ञवेदी के चारों ओर नृत्य करती थीं- ‘परिकुम्भिन्यो मार्जालीयं यन्ति, इदं मध्विति’ (ताण्ड्य ब्राह्मण ५।६।१५)। ताण्ड्य ब्राह्मण ग्रंथ में इसका विशद विवरण उपलब्ध होता है। उस समय वे निम्नलिखित गीत को गाती भी जाती थीं-
गावो हाऽऽरे सुरभय इदम्मधु,
गावो घृतस्य मातर इदम्मधु।
इस नृत्य के समानान्तर अन्य स्त्रियाँ और पुरुष वीणावादन करते थे। उस समय प्रचलित वीणाओँ के अनेक प्रकार इस प्रसंग में मिलते हैं। इनमें अपघाटिला, काण्डमयी, पिच्छोदरा, बाण इत्यादि मुख्य वीणाएँ थीं। ‘शततन्त्रीका’ नाम से विदित होता है कि कुछ वीणाएँ सौ-सौ तारों वाली भी थीं। इन्हीं शततन्त्रीका जैसी वीणाओं से ‘सन्तूर’ वाद्य का विकास हुआ।
लोकप्रिय पर्व होली वास्तव में एक वैदिक यज्ञ है, जिसका मूल स्वरूप आज विस्मृत हो गया है।
कल्पसूत्रों मेँ महाव्रत के समय बजायी जाने वाली कुछ अन्य वीणाओं के नाम भी मिलते हैं। ये हैं - अलाबुवक्रा(समतन्त्रीका, वेत्रवीणा), कापिशीर्ष्णी, पिशीलवीणा(शूर्पा) इत्यादि। शारदीया वीणा भी होती थी, जिससे आगे चलकर आज के ‘सरोद’ वाद्य का विकास हुआ।
होली में दिखने वाली हँसी-ठिठोली का मूल ‘अभिगर-अपगर-संवाद’ में निहित है। भाष्यकारों के अनुसार ‘अभिगर’ ब्राह्मण का वाचक है और 'अपगर' शूद्र का। ये दोनों एक दूसरे पर आक्षेप-प्रत्याक्षेप करते हुए हास-परिहास करते थे। इसी क्रम में विभिन्न प्रकार की बोलियां बोलते थे, विशेष रूप से ग्राम्य बोलियाँ बोलने का प्रदर्शन किया जाता था-
‘सर्व्वा त्वाचो वदन्ति संस्कृताश्च ग्राम्यवाचश्च’
(ताण्ड्य ब्राह्मण ५।५।२० तथा इस पर सायण-भाष्य)।
महाव्रत के ये विधान वर्षभर की एकरसता को दूर कर यज्ञानुष्ठाता ऋत्विजों को स्वस्थ मनोरञ्जन का वातावरण प्रदान करते थे। यज्ञों की योजना ऋषियों ने मानव-जीवन के समानान्तर की है, जिसके हास-परिहास भी अभिन्न अङ्ग हैं।
महाव्रत के दिन घर-घर में विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पक्वान्न बनाये जाते थे-‘कुले कुलेऽन्नं क्रियते।’ घर में कोई जब उस दिन पकवान्नों को बनाये जाने का कारण पूछता था, तब उत्तर दिया जाता था कि यज्ञानुष्ठान करने वाले इन्हें खायेंगे-‘तद् यत् पृच्छेयुः किमिदं कुर्वन्ति इति इमे यजमाना अन्नमत्स्यन्ति इति ब्रूयु:।’
लेकिन हास-परिहास और मौज-मस्ती के इस वातावरण में भी सुरक्षा के संदर्भ को ओझल नहीं जाता था। राष्ट्ररक्षा के लिये जनमानस को सजग बने रहने की शिक्षा देने के लिये इस अवसर पर यज्ञवेदी के चारों ओर शस्त्रास्त्र और कवचधारी राजपुरुष तथा सैनिक परिक्रमा भी करते रहते थे।
होली के आयोजन में, महाव्रत के इन विधि-विधानों का प्रभाव अद्यावधि निरन्तर परिलक्षित होता है। दोनों के अनुष्ठान का दिन भी एक ही है- फाल्गुनी पूर्णिमा।