*इतिहास गवाह है हमेशा किले के*
*दरवाज़े अंदर से ही खोले गए है।*
*शिवाजी की शमशीरें,*
*जयसिंह ने ही रोकी थीं,*
*पृथ्वीराज की पीठ में बरछी,*
*जयचंदों नें भोंकी थी।*
*हल्दीघाटी में बहा लहू,*
*शर्मिंदा करता पानी को,*
*राणाप्रताप सिर काट काट,*
*करता था भेंट भवानी को।*
*राणा रण में उन्मत्त हुआ,*
*अकबर की ओर चला चढ़ के,*
*अकबर के प्राण बचाने को,*
*तब मानसिंह आया बढ़ के।*
*इक राजपूत के कारण ही,*
*तब वंश मुगलिया जिंदा था,*
*इक हिन्दू की गद्दारी से,*
*चित्तौड़ हुआ शर्मिंदा था।*
*जब रणभेरी थी दक्खिन में,*
*और मृत्यु फिरे मतवाली सी,*
*और वीर शिवा की तलवारें,*
*भरती थीं खप्पर काली सी।*
*किस म्लेच्छ में रहा जोर,*
*जो छत्रपती को झुका पाया,*
*ये जयसिंह का ही रहा द्रोह,*
*जो वीर शिवा को पकड़ लाया।*
*गैरों को हम क्योंकर कोसें,*
*अपने ही विष बोते हैं,*
*कुत्तों की गद्दारी से,*
*मृगराज पराजित होते हैं।*
*बापू जी के मौन से हमने*
*भगत सिंह को खोया है,*
जय माँ भारती
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