गजल
करें तामीर यारों फिर मुहब्बत की इमारत का।
तमाशा क्यूं करें हम-तुम सआदत का जहानत का।।
खुदा तुमको बचा लेगा वबा की इस कयामत से।
यही तो वक्त है यारों तिलावत का इबादत का।।
नजाकत ठीक है लेकिन नसीहत ये हमारी है।
'सलीका सीख लो जानम जरा हमसे मुहब्बत का'।।
अभी अच्छा नहीं लेकिन कभी तो वक्त बदलेगा।
कभी मौका नहीं देंगे तुम्हें हम यार नफरत का।।
मुसीबत मुल्क पर आई अजब, मिलकर रहो यारों।
संभल जाओ मेरे लोगों नहीं मौका सियासत का।।
दर्द गढ़वाली, देहरादून
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