योग्य शिष्य को गुरु स्वयं खोज लेते हैं
रामकृष्ण, विवेकानन्द को ढूँढ़ते हुए उनके घर गए थे। शिवाजी को समर्थ गुरु रामदास ने खोजा था। चाणक्य चन्द्रगुप्त को पकड़ कर लाए थे। गोखले गाँधी पर सवार हुए थे। हमारे सम्बन्ध में भी यही बात है। मार्गदर्शक सूक्ष्म शरीर से पंद्रह वर्ष की आयु में घर आए थे और आस्था जगाकर उन्होंने दिशा विशेष पर लगाया था। सोचता हूँ कि जब असंख्य सद्गुरु की तलाश में फिरते और धूर्तों से सिर मुड़ाने के उपरांत खाली हाथ वापस लौटते हैं, तब अपनी ही विशेषता थी, जिसके कारण एक दिव्य शक्ति को बिना बुलाए स्वेच्छापूर्वक घर आना और अनुग्रह बरसाना पड़ा। इसका उत्तर एक ही हो सकता है कि जन्मान्तरों से पात्रता के अर्जन का प्रयास। यह प्रायः जल्दी नहीं हो पाता। व्रतशील होकर लंबे समय तक कुसंस्कारों के विरुद्ध लड़ना होता है। संकल्प, धैर्य और श्रद्धा का त्रिविध सुयोग अपनाए रहने पर मनोभूमि ऐसी बनती है कि अध्यात्म के दिव्य अवतरण को धारण कर सके।यह पात्रता ही शिष्यत्व है, जिसकी पूर्ति कहीं से भी हो जाती है। समय पात्रता विकसित करने में लगता है, गुरु मिलने में नहीं। एकलव्य के मिट्टी के द्रोणाचार्य असली की तुलना में कहीं अधिक कारगर सिद्ध होने लगे थे। कबीर को अछूत होने के कारण जब रामानंद ने दीक्षा देने से इंकार कर दिया, तो उनने एक युक्ति निकाली।काशी घाट की जिस सीढ़ियों पर रामानंद नित्य स्नान के लिए जाया करते थे, उन पर भोर होने से पूर्व ही कबीर जा लेटे, रामानंद अँधेरे में निकले, तो पैर लड़के के सीने पर पड़ा। चौंके राम-नाम कहते हुए पीछे हट गए। कबीर ने इसी को दीक्षा संस्कार मान लिया और राम-नाम को मंत्र तथा रामानंद को गुरु कहने लगे। यह श्रद्धा का विषय है। जब पत्थर की प्रतिमा देवता बन सकती है, तो श्रद्धा के बल पर किसी उपयुक्त व्यक्तित्व को गुरु क्यों नहीं बनाया जा सकता गुरु वही है जो शिष्य को अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाऐ।
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