गजल, दर्द गढ़वाली

गजल


तेरे लिए ही भटकती थी दरबदर आंखें।
ठहर गई हैं तुझे ही तो देखकर आंखें।।


हदे-निगाह में कोई नहीं है सहरा में।
हैं किसकी शामो-सहर ऐसी मुंतजिर आंखों।।


निगाह उठती हो गिरती हो कातिलाना हैं।
हैं लाजवाब तुम्हारी कसम मगर आंखें।।


दिखाई दूंगा मैं तुमको तुम्हारे जैसा ही।
कहो तो कर दूं तुम्हें पेश मोतबर आंखें।।


खिले हैं फूल मेरे दिल के इस गुलिस्तां में।
हैं इंतजार में तेरी डगर-डगर आंखें।।


वो आ गए हैं या ये है फरेब आंखों का।
कि तक रही हैं उन्हें मेरी हमसफर आंखें।।
दर्द गढ़वाली, देहरादून 


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