*उपाधि नहीं व्याधि*
भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी से जुड़ा किस्सा है। एक दिन उन्होंने गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत को बुलाया और उनसे कहा, 'मैं आपको एक पत्र दे रहा हूं, आप इस पत्र को ले जाइए और बहुत ही सम्मान से गोरखपुर में गीता प्रेस के संस्थापक हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को ये पत्र देना।'
पोद्दार जी को भाईजी के नाम से भी जाना जाता था। राष्ट्रपति जी की बात सुनकर पंत जी ने पूछा, 'इस पत्र में ऐसा क्या लिखा है, एक राष्ट्रपति एक व्यक्ति को ऐसा पत्र दे रहा है।'
राजेंद्र प्रसाद जी ने कहा, 'भाईजी अनूठा काम कर रहे हैं। उन्होंने गीता प्रेस के माध्यम से और धार्मिक साहित्य की मदद से जो जन जागरण का काम किया है, वह बहुत ही अद्भुत है। हमें उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करना चाहिए।'
राष्ट्रपति जी का आदेश था तो पंत जी गोरखपुर में भाईजी के पास पहुंच गए। भाईजी ने बहुत सम्मान के साथ बैठाया। पंत जी ने भाईजी को राष्ट्रपति जी का पत्र दिया। पंत जी सोच रहे थे कि देखते हैं, अब भाईजी की प्रतिक्रिया क्या होती है? भारत रत्न जिसे मिलता है, उसके लिए कैसे क्या व्यवस्था की जाएगी?
पंत जी ये सारी बातें सोच रहे थे, लेकिन पत्र पढ़कर भाईजी ने पत्र को उसी लिफाफे में रखा और पंत जी के सामने हाथ जोड़कर कहा, 'आप भारत के गृहमंत्री हैं, आप सम्मानीय हैं, मेरा एक निवेदन है। भारत के राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू बहुत अच्छे व्यक्ति हैं, मैं उनका बड़ा आदर करता हूं, लेकिन आपने और उन्होंने जो अनुग्रह मुझसे किया है, वह मैं स्वीकार नहीं कर सकता हूं, क्योंकि मेरे लिए उपाधि एक व्याधि है। जिस मार्ग पर मैं चल रहा हूं, मेरे जो उद्देश्य हैं, उसके लिए ये उपाधि बाधा बन सकती है। ये मेरे निजी विचार हैं। आप ही बताइए मैं व्याधि को मैं कैसे स्वीकार करूं, क्या आप कहेंगे कि मैं बीमार हो जाऊं।'
पंत जी ने लौटकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी को ये बात बताई तो उन्होंने भाईजी को एक पत्र लिखा कि मुझे ये अनुभव हो गया है कि कुछ लोग उपाधियों से ऊंचे होते हैं। उनमे से एक आप हैं।-
सीख - अगर उद्देश्य जनसेवा करने का है तो हमें प्रशंसा, मान-सम्मान, उपाधियों और सरकारी सुविधाओं से बचना चाहिए। कभी-कभी ये बातें अहंकार बढ़ा देती हैं और हमें सेवा कार्य से भटका देती हैं।
🚩🙏🙏🚩(डा0 एस के कुलश्रेष्ठ)
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