कोविड-19 के कारण पिछड़ती शिक्षा व्यवस्था

 !!देश की शिक्षा व्यवस्था पर कोविड की मार!!


कोविड-19 के बचाव में लगे दीर्घकालीन प्रतिबंधों से बच्चों की एक बड़ी संख्या सीखने-सिखाने में पिछड़ी है।शिक्षा तंत्र की काबिलियत इसी से आंकी जाएगी कि वह स्कूली बच्चों के नुकसान को किस तरह से न्यूनतम कर पाता है।....


कोविड-19 के प्रतिबंधों ने मानव समाज को कितना पीछे धकेला है, इसके सटीक आकलन लगने में अभी वर्षों लगेंगे,कोविड-19 महामारी पर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्णायक नियंत्रण का अभी कोई सिरा फिलहाल ठीक-ठीक दिख नहीं रहा और दुनिया का एक बड़ा व बेबस हिस्सा अब भी इसके रक्षात्मक वैक्सीन के इंतजार में है। पर इसके जो तात्कालिक असर दिख रहे हैं, वही काफी दिल दुखाने और चिंतित करने वाले हैं। भारत के संदर्भ में मशहूर अर्थशास्त्रियों का एक ताजा सर्वेक्षण बताता है कि लंबे अरसे तक स्कूलों/ कालेजों के बंद रहने की सबसे बड़ी कीमत इनमें पढ़ने वाले बच्चों ने चुकाई है। कक्षा एक से आठवीं तक के बच्चों के बीच किए गए इस सर्वे के मुताबिक लगभग ग्रामीण क्षेत्रों के 37 प्रतिशत बच्चों ने इस अवधि में बिल्कुल पढ़ाई नहीं की,जबकि सिर्फ आठ फीसदी बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर सके। शहरी क्षेत्र के आंकडे़ भी कोई बहुत राहत नहीं देते। यहां भी सिर्फ 24 प्रतिशत बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर सके।


ये आंकडे़ चौंकाने वाले नहीं,बल्कि चिंताजनक भी हैं। करीब डेढ़ साल तक इस कोविड महामारी से देश भर में स्कूल बंद रहे। इस दौरान ऑनलाइन पढ़ाई की वैकल्पिक व्यवस्था की गई,मगर इसकी जटिलताओं व सीमाओं को देखते हुए और भी बहुत कुछ करने की जरूरत थी। सरकार और शिक्षा तंत्र,दोनों इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि जो बच्चे दोपहर के भोजन के आकर्षण में स्कूल आते हैं या जिनके मां-बाप बमुश्किल उनकी फीस जोड़ पाते हैं, उनके पास स्मार्टफोन,इंटरनेट,बिजली जैसी सुविधाएं कहां होंगी! ऐसे में,उनके लिए इनोवेटिव रास्ते निकालने के वास्ते स्थानीय शिक्षा-तंत्र को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए था। खासकर पूर्ण लॉकडाउन के फौरन बाद। लेकिन सवाल सरोकार का है, और दुर्योग से शिक्षा इसमें बहुत ऊपर कभी नहीं रही। इस मद में बजटीय आवंटन और स्कूलों-शिक्षकों की कमी ही बहुत कुछ कह देती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सरकार की पहली प्राथमिकता संक्रमण रोकने की थी,और यह होनी भी चाहिए थी। पर जिस तरह उसने लोगों को भूख से मरने नहीं दिया,चुनावों में शिक्षकों की सेवाएं लीं,वह इस स्थिति से भी बचने की राह तलाश सकती थी। बहरहाल,चुनौती बड़ी है,क्योंकि बच्चों की एक विशाल संख्या सीखने में काफी पिछड़ गई है। सर्वे के निष्कर्षों में कहा गया है, कक्षा पांच के काफी बच्चों को दूसरे दरजे का पाठ पढ़ने में कठिनाई महसूस होने लगी है। अब जब तमाम सावधानियों के साथ स्कूल खुल रहे हैं, तब हमारे पूरे शिक्षा तंत्र की काबिलियत इसी से आंकी जाएगी कि वह इन बच्चों के नुकसान को किस तरह से न्यूनतम कर पाता है। सरकारों को शिक्षकों से अब पढ़ाई-लिखाई से इतर कोई भी कार्य लेने से परहेज बरतना चाहिए। उन्हें यह दायित्व सौंपना चाहिए कि इस अवधि में जिन बच्चों ने स्कूल से अपना नाता तोड़ लिया है,उन्हें वापस जोड़ा जाए। आज देश में बेरोजगारी का जो आलम है, उसे देखते हुए अल्प-शिक्षित पीढ़ियां भविष्य में बड़ा बोझ साबित होंगी।भारत के प्रधानमंत्री ने कल ही ‘शिक्षक पर्व’ का उद्घाटन करते हुए कहा कि शिक्षा न सिर्फ समावेशी होनी चाहिए,बल्कि समान होनी चाहिए। पर ताजा सर्वे इस लक्ष्य के विपरीत हालात दिखा रहा है,जहां गरीब-अमीर,गांव-शहर की शिक्षा में काफी असमानताएं हैं।

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कमल किशोर डुकलान  रुड़की)

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