पर्यावरण का मतलब मैती ने बताया..(वरिष्ठ पत्रकार पुष्कर सिंह रावत की कलम से)
उत्तराखंड के कल्याण सिंह रावत को मिला पद्मश्री पुरस्कार
1994-95 ये वो दौर था जब भारत में खुले बाजार की अर्थनीति साफ तौर पर दिखने लगी थी। दैनिक उपभोग की वस्तुओं के नामी गिरामी विदेशी ब्रांड भारत के कस्बों तक पहुंच बना रहे थे, संचार माध्यमों में टेलीफोन हर तीसरे घर में लगने को था, टीवी पर दूरदर्शन की मोनोटोनी से आगे बढ़कर डिश एंटीना के जरिए व्यावसायिक चैनलों का प्रसारण शुरू हो गया था.अखबारों का रुझान भी इसी दौर में रीजनल की ओर होने लगा। सिनेमा भी संक्रमण काल में था,और हम अपनी तरुणाई में, ऊर्जा से भरपूर, बड़कोट जैसे छोटे से कस्बे में, वन फ़िल्म वंडर राहुल रॉय की आशिकी को समझने की कोशिश कर रहे थे, इसी दौरान, उत्तराखण्ड आंदोलन की आग भड़की।ये हम जैसे टीन एजर्स के लिए एक नया और उत्तेजक अनुभव था. आंदोलन के दौरान घर से बाहर होते तो संजय दत्त की फ़िल्म सड़क का गाना 'रहने को घर नहीं सोने को बिस्तर नहीं' हमें बड़ा रास आता। भले ही हमारे पास घर भी था और बिस्तर भी। फिर आंदोलन कुछ धीमा पड़ा, तभी हमें बोध हुआ कि अभी बारहवीं भी पास करनी है..लगे हाथ वो भी कर गए..लेकिन..ठीक इसी काल खंड में, चमोली जिले में एक शिक्षक कल्याण सिंह रावत जी, एक अनूठे अभियान की शुरुआत कर चुके थे। जिसका नाम था मैती आंदोलन। ये पूरी तरह रचनात्मक आंदोलन था, जिसमें विवाह के समय दुल्हन को अपने मायके में पति के साथ एक पौधा रोपने की रस्म पूरी करनी होती थी। मैने बारहवीं की पढ़ाई के दौरान ही इस आंदोलन के बारे में अखबार में एक खबर पढ़ी। जिस तरह हर आदमी के के किसी खास शौक के पीछे कोई एक वाज जरूर होती है। उसी तरह मैती की खबर और आंदोलन की वजहों ने ही मुझे पर्यावरण के बारे में जानने समझने की प्रेरणा दी। आज मैती आनफॉलन के प्रणेता कल्याण सिंह रावत जी को पदमश्री मिलना इस आंदोलन की सार्थकता को साबित कर रहा है..
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