ताश के पत्तों की तरह ढह गया शहरी सिस्टम
----------------------------------------------- पुष्कर सिंह रावत वरिष्ठ पत्रकार मेरठ3,
लॉकडाउन के बीच सड़कों पर उमड़ा ये हुजूम बहुत कुछ कहता है। ऐसा नहीं कि इन लोगों को बीमारी का खौफ नहीं है। कोरोना के कहर से वाकिफ होने के बावजूद ये लोग भारी भीड़ की शक्ल में सड़कों पर हैं। दरअसल, ये वही लोग हैं जिन्होंने हमारे तुम्हारे शहरों को अपने हाथों से बनाया है तराशा है। साबित हो गया कि शहर किसी का नहीं होता। कल तक ये लोग ऊंची इमारतों को आकार दे रहे थे। कारखानों में खुद को झोंके हुए थे। इनके हाथ और कंधे सिर्फ मजदूरी नहीं कर रहे थे, बल्कि हमारे पूरे अर्थ तंत्र को थामे हुए थे।
पल भर में ही इनका भरोसा उठ गया। जिसकी बहुत सी वाजिब वजहें हैं। सामान्य हालात में वो बातें नजर नहीं आती। मसलन, शहरों का सिस्टम सिर्फ लेन देन पर टिका है। सामाजिक संरचना बाहर से जैसी भी दिखे, भीतर से खोखली है। जो लोग मीलों दूर शहर में उम्मीदों के साथ पूरी जिंदगी खपाने आते हैं, उन्हें 21 दिन यहां रहने का भरोसा भी नहीं दिलाया जा सका। अब सीधे तौर पर समाज दो वर्गों में बंटा हुआ दिख रहा है। एक वो जो बीमारी के खौफ से खुद को बचाने के घरों में कैद है। दूसरा वो जो मरने के लिए अपनों के पास जाना चाहता है। लेकिन याद रखना होगा कि अगर हालात और खराब हुए तो शहर से और भी हुजूम सड़कों पर निकल जाएंगे। उनमें हम और तुम भी हो सकते हैं। ये कहना जल्दबाजी होगी कि ये दृश्य वर्ग संघर्ष की ओर इशारा कर रहे हैं। लेकिन इतना तय हो गया कि अपना सिस्टेम ताश के पतों की इमारत निकला, जो एक फूंक से ही ढह गया।
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