इन आंखों से बावस्ता अफसाने हजारों हैं... लॉकडाउन चिंतन
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मास्क का मौसम चल रहा है। अब मुंह की बजाए आंखों से ही ज्यादा बातचीत हो रही है। वैसे भी जुबां जब खामोश हो तो आंखें ही काम आती हैं। यानी मुंह से ज्यादा अहमियत है आंखों की। कहते हैं कि जो मुंह से जाम नहीं पीता, वो आंखों से ही पी लेता है। नखरे भी आंखें ही करती हैं, गुस्सा और गम भी आंखें ही जताती हैं और खुशी का इजहार भी आखें ही करती हैं। आंखों में इतनी खूबियां हैं कि कविता और गीत लिखने वाले भी इन पर दिल खोल कर मेहरबान रहते हैं। जी भर-भर के लिखा है। ग़ालिब भी आंखों की अहमियत में कह गए हैं- कौन कहता है मोहब्बत के जुबां होती है, ये तो वो शै है ग़ालिब जो आंखों से बयां होती है। आंखों की बात पर हमारे नेगी दा का भी अंदाज खास है- तेरी आंखयूं का सवाल पढ़ीयेनी मिन, बोल खोल द्यूं किताब सबका सामणी या फिर, गुड़ खायो माख्यूंना हौरी खांदान गिच्चीन तू खांदी आंख्यूंना। इससे ज्यादा क्या कहूं, मुंह को लेकर ऐसी दरियादिली नहीं दिखती। खैर, अपनी आंखें तो माशाअल्लाह, इक्कीस की इठलाती उमर में ही चश्मा मांग बैठी थीं। शुरूआत में चश्मा और आंखें एक दूसरे से घुल मिल नहीं सके, तो कहीं पे निगाहें और कहीं पे निशाना लग जाता। बाद में ऐडजस्ट हुए तो इसके फायदों का पता लगा। इससे पहले कि आंखों को लेकर कोई नसीहत मिले,,,,आज का लॉकडाउन चिंतन इतना ही।
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