भाजपा में शामिल क्यो हो रहे हैं नयी पीढ़ी के काँग्रेसी नेता



अच्छे समय में काँग्रेस के साथ और अब भाजपा के तलवे चाटते ये नयी पीढ़ी के नेता 

कांग्रेस के अन्दर पुराने कांग्रेसी नेताओं के सुपुत्रों का जमावड़ा लग गया था और ये सब राहुल गांधी की कम्पनी में राजकुमार वाली स्टेटस का आनन्द ले रहे थे। सोनिया - मनमोहन की दस साल चली सरकार में ये मंत्री पदों पर बैठे मलाइ काटते रहे। इन दस वर्षों के दौरान इनकी देश के लिये कोई अतुल्य उपलब्धि नहीं रही। राहुल गांधी की नजदीकी का फायदा उठाकर ये मौज करते रहे। हाईकमान तक इनकी बेरोकटोक मुलाकात थी। सोनिया गांधी ने इन्हें हमेशा अपने बच्चों जैसा सम्मान दिया। राहुल ने पुराने नेताओं से नाराजगी मोल लेकर भी इनकी पार्टी के हर मंच पर वकालत की। मगर चांदी की प्लेट में रखकर मिली ये सत्ता और कद इनके दिमाग में ऐसा घुसा कि ये अपने को राजा समझने लग गये हैं। बिना मेहनत के जो मिल जाये उसका यही हाल होता है। 


कांग्रेस पार्टी मध्यप्रदेश और राजस्थान जीती तो इन्हें चीफ मिनिस्टर से नीचे कुछ भी मन्जूर नहीं। माधव राव सिंधिया के सुपुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया इसी कैटेगरी में आते हैं। कांग्रेस की सरकार गिराकर बीजेपी में मोहाजिर वाली स्टेटस लेकर राज्यसभा में बैठे हैं। पिछली बैंच पर जगह मिली और पार्टी में कोई पूछ नहीं। अब जितिन प्रसाद गये हैं। कांग्रेस चुनाव जितवाती रहती तो नहीं जाते। ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रसन्न हैं कि चलो एक नकटे से दो हो गये, बेइज्जती आधी रह जायेगी। इसलिए जितिन प्रसाद का स्वागत किया। अब सचिन पायलट भी बगावत कर रहे हैं। जायेंगे तो बीजेपी में ही। काने तीन हो जायेंगे। ऐसे जल्दबाजों को सत्ता देना मूर्खता होगी। 


नौजवानों में धैर्य का बड़ा अभाव है। राजनीति लम्बी रेस है पचास साठ साल तक की। इतिहास से सीख लेने की जरूरत है। उदाहरण के लिये पी वी नरसिम्हा राव और प्रणव मुखर्जी को ही लें। प्रणव मुखर्जी में धैर्य की कमी थी और वो इन्दिरा गांधी के बाद नम्बर दो बनने के लिये हमेशा बेताब रहते थे। परन्तु कभी बन नहीं सके। विदेश जाते समय इंदिरा गांधी किसी दूसरे को कैबिनेट हैड बना कर जाती थी। जब मौका आया भी पीएम बनने का तो भी उनकी चाह भी पूरी नहीं हुई। सीधे सादे मनमोहन सिंह बाजी मार गये। जहां तक राष्ट्रपति बनने की बात है तो राजनीतिज्ञ इसे रिटायरमेंट ही मानते हैं। मोदी और आरएसएस नेताओं के तलुए चाट कर विवादित बन गये। धैर्य की कमी उनको मनचाहे नतीजे तक पहुंचने से रोकती रहा। दूसरी तरफ नरसिम्हा राव को देखिये कभी बेचैन और उद्विग्न नहीं रहे और सत्ता उन्हें मिलती रही। कभी पीएम बनने की उत्सुकता नहीं दिखाई। बड़ी उम्र और तबियत ठीक न होने की वजह से चुनाव भी नहीं लड़े पर 1991 में 71 साल की उम्र में प्रधान मंत्री बन गये। बाद में आंध्र से लोकसभा चुनाव लड़ा। वो बहुत ही विद्वान और धैर्यवान थे। उनकी गिनती आज भी बैस्ट पीएम में होती है।


ये लड़के जिनकी अभी खेलने खाने की उम्र है चीफ मिनिस्टर बनने के लिये फड़फड़ा रहे हैं। जो लोकसभा सांसद रहे वो अपनी भाभी को पंचायत नहीं जिता सके और कह रहे हैं जनता की सेवा नहीं कर पा रहा था कांग्रेस में।समझे कुछ। इनकी नजर में मंत्री पद न हो तो सेवा कैसे करें। जिस रास्ते ये सब जा रहे हैं इनका कैरियर ज्यादा लम्बा नहीं चलने वाला। पायलट, मिलिंद देवड़ा ये ध्यान में रखें। 

(वरिष्ठ काँग्रेस नेता कुलदीप शर्मा) 

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