व्यथित मन की व्यथा (विजयेन्द्र पालिवाल)


सुनो....व्यथित मन की व्यथा को व्यक्त किया है..शब्द अच्छे लगें तो कमेंट्स जरूर कीजियेगा....


माना ....

सूरज

में तपिश थी

 

 पर तुम शीतल हुआ करते थे 

चाँद 

क्या हुआ तुम्हे 

सितारों के बीच घिरे रहते हो 

सुनो 

यहां तक तो ठीक था 

पर तुमने तो 

हमारे अपनो को बुला कर 

उन्हें सितारे बनाना 

कब से शुरू कर दिया 

पता है तुम्हे

 देखता हूँ जब भी आसमाँ में

तुम्हारे इर्द गिर्द

लगता है मेरे अपने 

जमीं से टूट

 तुम्हारे पास आ रहे हैं

 दुःखी है मन अब तो

 न जाने क्यों 

बस ....बहुत हुआ

 अब तुम अपनो में रहो 

हमें अपनो में रहने दो

अपनी महकती चांदनी से..

उदास मन को उजास दो

जमी के तारों को 

तुम यहीं जगमगाने दो

 हमारे इन अपनो को  

अपने में ही रहने दो

रहो तुम वहां

अपनी चांदनी

अपने सितारों के साथ

हमें तो यहाँ रहने दो

अपनो में अपनों के साथ


विजयेंद्र पालीवाल

No comments:

Post a Comment