काव्य धारा


 ग़ज़ल 


नींद में फिर बुला रहे थे मुझे।

ख्वाब में जो सता रहे थे मुझे।


पाई-पाई मैंने खुद को जोड़ा था।

वो मजे से लुटा रहे थे मुझे।।


क्या बताएं कुछ अम्न के दुश्मन।

जाने क्या-क्या रटा रहे थे मुझे।।


जो बिछाते थे आंख मेरे लिए।

आंख वो भी दिखा रहे थे मुझे।।


इस कदर आग भड़की थी इश्क़ की।

मैं जला तो बुझा रहे थे मुझे।।


साजिशें चल रही थी कुछ जह्न में।

गोटियों सा बिछा रहे थे मुझे।।


जख्म पर खुद छिड़क रहे थे नमक।

'दर्द' क्या है जता रहे थे मुझे।।


दर्द गढ़वाली, देहरादून 

09455485094

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